ग्रीष्म ऋतुचर्या
ग्रीष्म ऋतुचर्या
आयुर्वेद एक संपूर्ण जीवन दर्शन है और इसका प्रमुख उद्देश्य स्वस्थ के स्वास्थ्य का रक्षण करना है। इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए आयुर्वेद में दिनचर्या और ऋतु चर्या का वर्णन किया गया है।
आयुर्वेद में 6 ऋतुओं का वर्णन किया गया है-
हेमंत, शिशिर, वसंत, ग्रीष्म, वर्षा और शरद
इन ऋतुओं के लिए अलग-अलग आहार-विहार बताए गए हैं, यदि हम इनका विधि पूर्वक पालन करते हैं तो अनेक मौसमी बीमारियों से बच सकते हैं।
ग्रीष्म-ऋतु में आहार-विहार
ग्रीष्म ऋतु में सूर्य की तेज और उष्ण किरणें पृथ्वी का सारा जलीय अंश और चिकनाई सोख लेती हैं। पृथ्वी का तापमान एकदम बढ़ जाता है और सब जगह ताप ही ताप अनुभव होता है। इससे सारा वातावरण रूखा और नीरस दिखाई देता है। यह आदान काल की चरम सीमा होती है। समय की गर्मी और लू का प्रभाव प्राणियों पर ही नहीं, अपितु पेड़-पौधों आदि वनस्पति जगत् और यहाँ तक कि नदी, कुएँ, तालाब आदि पर भी पड़ता है।
ग्रीष्म ऋतु में प्राकृतिक भावप्रबल रसकटुप्रबल महाभूतअग्नि+वायुदोष अवस्थावात दोष का संचय, कफ दोष का शमनजठराग्नि की क्रियाशीलतामध्यमबलअल्प बल
शरीर पर प्रभाव
शरीर को स्वस्थ, बलशाली और सुडौल बनाये रखने के लिए स्निग्धता (चिकनाई) और सौम्यता की आवश्यकता होती है। क्योंकि इस ऋतु में इन दोनों का अभाव होता है, अतः शरीर भी वनस्पतियों की तरह सूखने लगता है। शरीर के रस, रक्त आदि सातों धातु क्षीण होने लगते हैं। अतः दुर्बलता आ जाती है। पसीना अधिक मात्रा में आता है। प्यास अधिक लगती है। बहुत अधिक जल पीने से आँतों में पाया जाने वाला अम्ल जल में घुल कर कम हो जाता है। इससे जीवाणुओं का संक्रमण शीघ होता है और वमन (उल्टी), अतिसार (दस्त) तथा पेचिश आदि रोगों का आक्रमण होने की सम्भावना रहती है। शरीर में पित्त दोष का प्रकोप होने से अत्यधिक प्यास, ज्वर, जलन, रक्तपित्त (नाक आदि अंगों से रक्तस्राव), चक्कर, सिर दर्द आदि रोग भी हो सकते हैं। इन सब रोगों व दुर्बलता आदि से बचने के लिए आयुर्वेद ने इस ऋतु में निम्नलिखित आहार-विहार का निर्देश किया है-
पथ्य आहार-विहार
ग्रीष्म-ऋतु में हल्का, चिकना, मधुर रस युक्त, सुपाच्य, शीतल और तरल पदार्थों का सेवन अधिक मात्रा में करना चाहिए। जल को उबालकर घड़े या फ्रिज में ठण्डा करके पीना चाहिए। चीनी, घी, दूध व मट्ठे का सेवन करना चाहिए। दही में थोड़ा पानी मिलाकर बनाये गये मट्ठे में शक्कर डालकर पीना उपयोगी है। इसमें पिसा जीरा व थोड़ा नमक मिलाकर सेवन करना भी लाभकारी होता है। इसे केवल प्रातः और दोपहर के भोजन के साथ लिया जा सकता है, रात में नहीं।
पुराने जौ, सब्जियों में चौलाई, करेला, बथुआ, परवल, पके टमाटर, छिल्के सहित आलू, कच्चे केले की सब्जी, सहजन की फली, प्याज, सफेद पेठा, पुदीना, नींबू आदि, दालों में छिल्का रहित मूँग, अरहर और मसूर की दाल, फलों में- तरबूज, मीठा खरबूजा, मीठा आम, सन्तरा और अंगूर, हरी पतली ककड़ी, शहतूत, फालसा, अनार, आँवले का मुरब्बा, सूखे मेवों में- किशमिश, मुनक्का, चिरौंजी, अंजीर, बादाम (भिगोए हुए) आदि पथ्य होते हैं।
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तरल पदार्थों में- नींबू की मीठी शिकंजी, कच्चे आम का पना, शर्बत, मीठे दही की लस्सी, बेल का शर्बत, मीठा पतला सत्तू, ठण्डाई, चन्दन, खसखस, गुलाब का शर्बत, गन्ने, सेब और मीठे सन्तरे का रस, पाटला के फूलों से सुगन्धित और कपूर से ठण्डा किया जल, नारियल का पानी, मिश्री व घी मिला दूध, भैंस का दूध, रायता, चंद्रमा की किरणों में ठण्डा किया जल जैसे पदार्थ लाभकारी हैं। अरहर की दाल खुश्क होती है। अतः उसमें घी और जीरे का छौंक लगा लेना चाहिए। रसायन के रूप में हरड़ का सेवन समान मात्रा में गुड़ मिला कर करना चाहिए। इस ऋतु में भोजन कम मात्रा में और खूब चबा-चबा कर खाना बहुत जरूरी है। भोजन ताजा और गर्म लेना चाहिए। ठण्डा होने के बाद फिर गर्म करके खाना या फ्रिज में रखे व्यंजन को गर्म करके खाना ठीक नहीं। फ्रिज में देर तक रखे खाद्य पदार्थ का सेवन करना हानिकारक होता है। फ्रिज की अपेक्षा घड़े या सुराही में ठण्डा किया हुआ जल पीना चाहिए।
इस ऋतु में वृक्षों से भरे बाग-बगीचों में भ्रमण करना स्वास्थ्यवर्धक होता है, क्योंकि इनमें सूर्य की किरणें सीधी धरती पर नहीं पहुँच पातीं, अतः वहाँ अधिक गर्मी नहीं होती। रहने का स्थान, विशेषकर शयन कक्ष पानी के फव्वारे, पंखों, कूलर आदि से ठण्डा किया जा सकता है। रात के समय ऐसे स्थान पर सोना चाहिए जहाँ वातावरण ताजी हवा और चंद्रमा की किरणों से ठण्डा हो। आराम कुर्सी आदि पर बैठ कर ठण्डी हवा का सेवन करना चाहिए। शरीर पर चन्दन का लेप करना चाहिए और मोतियों के आभूषण पहनने चाहिए। क्योंकि मोती में शीतलता प्रदान करने का एवं उपचारात्मक प्रभाव होता है। इसमें पित्त के विपरीत गुण होते हैं तथा यह रक्त का शोधन करता है। इसमें नाक एवं मसूढ़ों से होने वाले रक्तस्राव को रोकने की क्षमता होती है। यह शरीर को बल एवं जीवनीय शक्ति प्रदान करता है। बिस्तर पर केले, कमल आदि के पत्ते बिछाने चाहिए। सूती व सफेद या हल्के रंग के वत्र पहनने चाहिए। बाहर धूप में नहीं घूमना चाहिए। यदि जाना ही पड़े तो पैरों में अच्छे जूते पहन कर, सिर ढक कर या छाता लेकर जाना चाहिए। घर से निकलते समय एक गिलास ठण्डा पानी अवश्य पी लेना चाहिए। एक साबुत प्याज साथ में रख लेना चाहिए। इन साधनों से लू नहीं लगती। रात को 10 बजे के बाद तक जागना पड़े, तो बीच-बीच में एक गिलास ठण्डा पानी अवश्य पीते रहना चाहिए। इससे वात और कफ दोष कुपित नहीं होते और कब्ज भी नहीं होता।
रात का भोजन विशेष रूप से हल्का और सुपाच्य होना चाहिए। यदि हो सके तो इस समय सप्ताह में एक-दो बार खिचड़ी का सेवन करें। रात का भोजन जितना जल्दी हो सके कर लेना चाहिए। इस ऋतु में दिन के समय थोड़ा सोया जा सकता है।
अपथ्य आहार-विहार
ग्रीष्म-ऋतु में उष्ण प्रकृति के, खट्टे (अमचूर, इमली आदि), कटु (चरपरे), लवण, रूखे और कसैले पदार्थों का सेवन कम से कम मात्रा में करना चाहिए। भारी, तले हुए, तेज मिर्च-मसालेदार, बासी, लाल मिर्च वाले पदार्थों, उड़द की दाल, लहसुन, सरसों, खट्टी दही, शहद, बैंगन, बर्फ आदि का सेवन बिल्कुल नहीं करना चाहिए। (शहद को औषधि के अनुपान के रूप में लिया जा सकता है।) बाजार में बिकने वाली चाट-चटनी आदि खट्टे पदार्थ, खोये के व्यंजन और उड़द की पिट्ठी से बने पदार्थ भी हानिकारक होते हैं। एक बार में अधिक मात्रा में जल नहीं पीना चाहिए, इससे पाचक-अग्नि दुर्बल होती है। कुछ-कुछ समय बाद एक-एक गिलास करके जल पीना लाभकारी है। विरुद्ध आहार का सेवन नहीं करना चाहिए। एक दम ठण्डे वातावरण से निकल कर धूप में जाना और धूप से आ कर एकदम पानी नहीं पीना चाहिए। थोड़ा रुक कर पसीना सूख जाने के बाद और शरीर का तापमान सामान्य होने पर ही जल आदि पीना चाहिए। फ्रिज के पानी में सादा पानी मिला लेना चाहिए। मद्य-पदार्थों का सेवन तो इस ऋतु में बिल्कुल नहीं करना चाहिए। जो इनके बिना नहीं रह सकते, उन्हें इनमें पर्याप्त मात्रा में जल मिला लेना चाहिए।
ग्रीष्म-ऋतु में निम्नलिखित आचार-व्यवहार से भी बच कर रहना चाहिए |
- रात को अधिक देर तक जागना (क्योंकि इस समय रातें वैसे ही छोटी होती हैं),
-दिन के समय धूप में अधिक घूमना,
-धूप में नंगे सिर घूमना,
-अधिक समय तक भूखे-प्यासे रहना,
-अधिक समय तक तथा अधिक मात्रा में व्यायाम करना,
- मल-मूत्र के वेग को रोकना |
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